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मैं ,सम्राट अशोक और प्रधानमंत्री मोदी :- अशोक स्तंभ के सिंह का स्वरूप ( तब और अब के विशेष परिपेक्ष्य में)

मैं ,सम्राट अशोक और प्रधानमंत्री मोदी :- अशोक स्तंभ के सिंह का स्वरूप ( तब और अब के विशेष परिपेक्ष्य में) बहुत ही प्राचीन काल की बात है। विक्रम से लगभग 200 वर्ष पूर्व की बात है या कह लीजिए ईसा के पैदा होने से लगभग 300 वर्ष पहले का समय है। आज़ से लगभग 2400 वर्ष पूर्व की घटना है। मैं तत्कालीन मगध सम्राट अशोक के साथ प्रातः कालीन वॉकिंग करने निकला था। हमारे साथ बड़ी भारी मात्रा में अंगरक्षक आगे और पीछे सुरक्षा दायित्वों का निर्वहन कर रहे थे। हम लोगों के साथ तमाम विजित प्रदेशों के नियुक्त शासक, सुरक्षाधिकारी, मगध के अमात्य भी उपस्थित थे। मैंने उन्हें विशेष तौर पर मार्निग वॉक पर आने के लिए निर्देशित किया था  कलिंग युद्ध के पश्चात, जब अशोक विजय उपरांत मानसिक अशांति के दौर से गुजर रहें थे तब उनके अतः पुर से महारानी सहित चिंताग्रस्त हितैषियों ने मुझे सूचित किया था , उनका निवेदन पूर्वक आग्रह था कि इस कठिन समय में सम्राट को सही सलाह देकर मैं मगध को इस आसन्न संकट की घड़ी से बाहर निकाल सकूं। मेरा हमेशा से यह मानना रहा है कि शासक को अपने मातहत के साथ अनौपचारिक रूप से भी कुछ वक्त बिताना चाहिए। यह बात

मैं अपने आप को अच्छा नहीं मानता हूं

हसीन, ख़ामोश और बेहद सशक्त ! उसके बारे में केवल यही तीन बातें ; मुझे याद हैं। पहली बार अपनी मध्यमवर्गीय औकात का मुकुट सर पर सजाए उसे एक चाय की टपरी पर ले गया था। फिर मुलाकातें बढ़ती गई, आना जाना लगा रहा और एक दिन हम साथ रहने लगे. आज़ जब बहुत दूर होकर भी उससे करीबी महसूस करता हूं तो एक ही चीज़ खटकती है ; उसकी ख़ामोशी ना जानें क्यूं , ख़ामोशी ही उसके जीवन का सार रही। ख़ामोशी ही प्रश्न और ख़ामोशी ही उत्तर । इसे उसने हथियार बना रखा था। अपनी हर तारीफ पर ख़ामोश रही। हर बुराई पर भी ख़ामोश। उसकी हर मुस्कुराहट में ख़ामोशी झलकती थी तो हर आंसू ख़ामोशी की एक भरी दास्तां लेकर निकलते थे।  हर अत्याचार को ख़ामोशी से सहने वाली ने ख़ामोशी में ही मुझसे प्यार कर लिया और एक दिन ख़ामोशी से इज़हार भी कर दिया, चुपके से आई - अपनी एड़ियों को थोड़ा उचकाकर अपना हाथ मेरे कंधे पर रखा और अपनी ओर खींच लिया। सांसों की मिली हुई सरगम के बीच आंखों को बंद किए हुए ही मेरे कानों में बेहद खामोशी से कुछ शब्द कहें . मैं ज़ोर देकर कहें देता हूं, आप उसकी ख़ामोशी को चुप्पी मत समझ लेना, ना बिल्कुल ना ! वो चुप्पी मार कर रहने वालों

तुम और तुम्हारी यादें( कविता)

तुम और तुम्हारी यादें                  (  तस्वीर - मीनाक्षी ) तुम और तुम्हारी यादें बिल्कुल एक दूसरे की पूरक हो तुम्हारी चंचलता की स्थायी भाव है तु म्हारी यादें जब भी मेरा मन नहीं लगता मैं गुफ्तगू कर लेता हूं - कितने प्यार से एहसासों से सराबोर कराती है तुम्हारी यादें घंटों मेरे साथ रहती फिर भी कभी नहीं ऊबती है तुम्हारी यादें और कितनी बातूनी है कभी थकती ही नहीं तुम्हारी यादें जुदाई उन्हें बर्दाश्त नहीं मैं जहां भी रहूं वहां मेरे साथ रहती हैं तुम्हारी यादें बिस्तर पर पड़े पड़े या भीड़ भरी बस में खड़े खड़े कभी भी कहीं भी गुदगुदा कर हसा देती हैं तुम्हारी यादें बड़ी भावुक हैं विह्लव से भरकर पल भर में हृदय में पतझड़ कर आसूं भर कर आंखों में रूला देती हैं तुम्हारी यादें इस मनोभाव की उच्छलता से दूर चला जाना चाहता हूं कब तक गाऊ यह विरह गीत कुछ प्रीत की बातें बता जाऊं ✍️रश्की 

इलाहबाद विश्विद्यालय के छात्रों का ट्विटर पर महाअभियान ! छात्र आन्दोलन के बदलते स्वरूप पर एक नज़रिया

 समय के अनुसार परिस्थितियां निर्मित होती हैं। जो परिस्थितियों में सर्वाइव कर लेता हैं वहीं युग का निर्माण करता हैं। वर्तमान उन्हीं के नाम होता हैं। डार्विन महोदय ने यहीं कहा था ! पढ़ने वाले पाठक गण उपरोक्त कथन का संदर्भ आज ट्विटर पर हुए महाभियान से ग्रहण करें। आज़ इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र संघर्ष के इतिहास में वो वक्त ऐतिहासिक हो गया तब इंडिया में ट्विटर के टॉप 3 ट्रेडिंग में छात्रों द्वारा उठाई जा रही आवाज़ की झलक सामने आने लगीं।  हैशटैग #AuPromote1stYear1stSem ट्रेंड करने लगा। पुरे इलाहाबाद विश्वविद्यालय और इससे संबद्ध कॉलेजों के हजारों छात्र ट्विटर पर अपनी मांग लेकर उतर आए। कोरोना काल में अभूतपूर्व परिस्थितियों के कारण छात्र और छात्राएं दूर दराज के अपने घरों में बंद हैं। असंवेदनशीलता की चरम सीमा पर आसीन इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रशासन ने छात्रों से संवाद के सभी रास्ते बंद कर रखें हैं। जब इस हालात में कोई सुनने वाला नहीं था तब इलाहाबाद युनिवर्सिटी फ़ैमिली और फाउंडर अंकित द्विवेदी के दिशा निर्देश तथा नेतृत्व में आम छात्रों ने ट्विटर को ही अपना हथियार बना कर इतिहास रच दिया। छात्रो

जीवन सार

 कहानी - (जीवन - सार) लेखक -  राहुल कुमार पाण्डेय रश्की  1 लू चल रहीं थीं, दोपहर की धूल भरी हवा , फगुनाहट का असर धीरे धीरे अवसान ले रहा था, चैत महीने के कुछ ही दिन बीते थे । वो मेरे रिश्तेदार के रिश्तेदार की पड़ोसी है। और सजातीय भी है। उसका नाम मौसम है। मैं पहुंचा तो वो बैठी मिली। मेरे नाश्ते पानी की व्यवस्था रिश्तेदार कर रहे थे, उसने उछल कर सबसे पहले टेबल फैन चला दिया। बटन दबा कर सर नीचे झुकाए झुकाए कहा :- एतना गरमी बा, रास्ता में बहुत परेशानी भईल होई ? जबाब में मैंने केवल हूं कहा और वो चुप बैठ गई। 2  जब पहली बार एक वैवाहिक कार्यक्रम में मिली थीं तो मुझे नॉन सेंस लगी थीं, इस लिहाज़ से की रहन सहन, बोल चाल गांव की परंपरा से ग्रहण किया था। जहां एक तरफ़ मैंने अपनें इलाहाबाद प्रवास के दौर में लड़कियों के बारीक फैशन सेंस से तुलना कर दी, सजने संवरने का कोई ठिक ढंग नहीं, लिपिस्टिक भी होठों पर फैले फैले, गालों पर मेकअप का उचित संतुलन नहीं ! इस बकवास सी तुलना के बाद मैंने अपने आप को कोसा , मैं 12 क्लास में पढ़ रही लड़की की तुलना फालतू में उनसे कर रहा हूं जो बचपन से ब्यूटी पार्लर की दहलीज लांघा

पहला प्यार और बिछोह ( भाग 1 )

 जब उससे विछोह ( बिछड़ना ) हुआ तो वो समान्य प्रेमियों के ब्रेक अप जैसा कुछ नहीं था। यूं तो हम कई बार कभी 2 दिन या फ़िर कभी 5 दिनों के लिया बातचीत बन्द कर देते थे। फ़िर हमारी बातचीत किसी ना किसी बहाने शुरू हो जाती थीं। लेकिन यह विछोह था। हमेशा हमेशा के लिए जुदा होना यही था। कुछ दिनों के उसके ठहराव ने एक परत खोल दी थी। एक अनजान चेहरा दिखा था। जो उसने पूरे साल/समय छुपाए रखा। जुदाई के इस किस्से में बातचीत बंद करना कहीं नहीं था। एक दूसरे को नीचा गिराना/दिखाना भी नहीं था। अब मैं सहज तौर पर हाल चाल पूछ लेता। अपना बता भी देता। अब भी घंटों बात होती थीं। लेकिन कोई जुड़ाव नहीं था। उसकी मखमली से मखमली और प्यारी बातचीत व्यवहार जो समान्य रूप से मन मोह देने वाला होता था। बस अब झांसा लगने लगा।  वो झांसा ही था। बहुत शातिराना आंदाज से धोखा कैसे दिया जाता है उसका ख़ूबसूरत अध्याय था। प्रेम में नौसिखुए के साथ कोई इस क़दर कैसे कपट कर सकता है यह उस समय समझ से बाहर की बात थी। 1990 में एक फिल्म आई थीं। उसका नाम था जुर्म ! मुझे फ़िल्म अपने कहानी और कलाकारों कि बदौलत याद नहीं हैं। बल्कि इसके दूसरे कारण है। इस फ़

लॉक डाउन में आपकी यादें !

लॉक डाउन में आपकी यादें ! 2019 में कोई रात रहीं होगी। हम दोनों अपने-अपने रूम में खाना खाकर कुछ देर आपस में व्हाट्सएप पर बतिया लिए। हमने सोचा कि कुछ पढ़ लें , इस नियत से नेट ऑफ कर फोन रख दिया। इसके बाद कॉल आ गया। हमने बता दिया अब पढ़ने जा रहे हैं। उन्होंने कहा कि हम भी आ जाए साथ पढ़ने, मैंने बुला लिया। साथ में 2 बजे तक पढ़े होगे। फ़िर आराम करने लगें। बैठे बैठे कमर भी दुख गई होगी शायद इसी लिए लेट गए। मेरे साथ एक बड़ी दिक्कत है कि अगर हाथ में मोबाइल हो तो सामने कितना भी प्रिय व्यक्ति बैठा हो मैं मोबाइल चलाने में व्यस्त हो जाता हूं। उस समय भी मैंने बैठ कर मोबाइल चलना शुरू कर दिया। इस पर उन्होंने गहरी आपत्ती दर्ज की.. जो शब्दों के रूप में ना होकर मोबाइल छीना झपटी के रूप में थीं। मैंने कहा ठीक है रख देता हूं और मोमेंट के मुताबिक एक गाना लगा दिया " लग जा गले "! दो तीन घंटे की जबरजस्त पढ़ाई, रात के डेढ़ दो बजे का समय इमोशनल किए जा रहा था। गाने के साथ उन्होंने भी गुनगुनाना शुरू कर दिया। कसम से उस समय उनकी आवाज़ लता जी से भी प्रिय लग रहीं थीं। मैं मोबाइल में बज रहें गाने को भूल

तुम्हारे नाम मेरी आखिरी कविता

मेरे आख़िरी कविता ! मैं कविताएं लिखता था देश पर, दुनिया पर , समाज पर, समस्यायों पर जब तुम मिली तो मैंने पहली बार प्रेम पर कविता लिखी तुम्हारे आगोश में मैं डूब जाता था जब मधुर ताल और लय सनी तुम्हारी निगाहों से गुजरी जुबानों से छनी कविताएं सुनता था प्रेम पंक्तियों की छत थी तुम जाने के बाद जैसे जुबां सिल गए हो गला बंध गया हो मैं ऐसा ही हो गया था। मेरी कविताएं किसी की पसंदीदा नहीं रह गई थी कोई नहीं था, जो हां हां..करें साथ में सीढ़ियां चढ़ते हुए गुन गुनाने लगे मेरी ही कविता तुम्हारा जाना मेरी कविताओं के सर से छत का जाना था मुझे याद है हजारों दफा मैंने टोका था तुम्हें सुनो........... मेरी कविताएं तुम्हें बोर नहीं करती हैं। तुम जवाब में हर बार कहती नाक बड़ी है तुम्हारी अरे ने नाक वाली बात क्या मस्त जोक मारा था छत पर और कितना हसें थे हमदोनो लगभग आधे घंटे तक एक दूसरे कि नाक को देख कर हसे थे देखो ना, ये हसीं अब गुम हो गई है तुम्हारे जाने और बाद वापस लौटने से पहले मैंने खोजने कि कोशिश की यह गुमशुदा हसी एक बार तो लगा कि मिल गई मुझे बिल्कुल तुम

वक़्त की बात , चित्रों के साथ !

किसी शायर ने कहा है कि किसी इंसान में बसते है कई इंसान, उसे ठीक से देखना हो तो कई बार देखो.                    चित्र - मीनाक्षी  मैंने कभी भी इसे सिरियस नही लिया. क्योकि मुझे यकीन था की इंसान ऐसा भी नहीं होता है कि जब भी मिले हर बार अपना चेहरा बदलता रहें। कहते है उम्र आदमी को अनुभव देता है। बहुत कम उम्र में मुझें जल्दी ही यह अहसास हो गया कि इंसान बिल्कुल उस गुलाब की तरह होता है, जो एक वक्त पर नन्हा कोमल बिना काटों वाला सुकांत होता है वहीं दूसरे वक्त पर खुशबूदार प्रेम का प्रतीक फूल बना होता हैं। फ़िर तीसरे वक़्त पर वह पंखुड़ियों में किसी मृत प्रायः देह पर बिखरा होता हैं।                  चित्र - मीनाक्षी मेरी आदत रहीं है कि खुली किताब की तरह रहों. इसके कई फ़ायदे है। व्यक्तित्व इतना बिंदास हो जाता है कि किसी से छिपाने को कोई बात नहीं होती है। हृदय में कोई झूठ नहीं होता है, जिसे गहरे घाव की तरह दबा कर रखा जाए. जिंदगी खुशहाल रहती हैं. चमकती रहती है. बिल्कुल ऐसे जैसे किसी फिला मेंट वाले बल्ब से सूरज चमक रहा हो।                 चित्र - विपुल मेरे आप पास ऐसे कई लोग है जो

राहुल रश्की की चुनिंदा कविताएं

राहुल रश्की की चुनिंदा कविताएं 1. लॉकडाउन में उसकी यादें आज पढ़ते वक़्त वो नजर आ रही है  किताबों के पन्ने में खुद को छुपा रही है ना जाने क्यों इतना शरमा रही है ? मारे हया के न कुछ बोल पा रही हैं ! इन घुटन भरी रातों में खुराफ़ाती इशारें से हमें कुछ बतला रही है ! आशय, अर्थ, प्रकृति हो या फ़िर परिभाषा सबमें वह ख़ुद का विश्लेषण करा रहीं है इस टूटे हुए दिल में क्यों घर बना रहीं है ? घड़ी की सुई समय को फ़िर दोहरा रही है कोई जाकर पूछे उससे अपनी मुहब्बत में एक नया रकीब क्यों बना रहीं हैं ?                    - राहुल रश्की                     चित्र - मीनाक्षी 2 . कलेजे में प्यार पकाता हूं मैं जिससे प्यार करता हूं वो किसी और से प्यार करती है और मुझसे प्यार का दिखावा मैं कवि हूं यह प्यार मुझे छलावा लगा  मैंने मुंह मोड़ लिया है उससे जैसे धूप से बचने को हर इंसान सूरज से मुंह मोड़ लेता है मैं अपने कमरे में अकेले रहता हूं वहां मुझे कई लोग मिलते है मेरे आस पास वो भीड़ लगा कर मेरी बातें करते है और मैं कुहुक कर उनसे कहता हूं मेरे दिल में दे

चुप रह कर बीता देंगे......हम पूरा सफ़र

... आज खूब पढ़ाई हुई। सुबह जल्दी उठ गया, 8 बजे ही...उठते ही पढ़ने बैठ गया। ठीक 2 धंटे बाद एक दोस्त का फोन आया 1 मिनट बात हुई। कुछ जरूरी मैसेज थे। उसके लिए व्हाट्सएप खोलने को बोला गया। फिर उसके बाद पढ़ने बैठ गया। जब पढ़ाई खत्म हुई तो 12 बज चुके थे। सुबह 8 बजे से लेकर 12 बजे तक हा, ना मिलाकर कुल दस शब्द निकले होंगे। चुप चुप....सब लोग चुप...... पूरा चुप है। बस आवज आ रही हैं तो मोबाइल से बजते ख़ूबसूरत गानों की. अब भूख भी लग चुकी थीं. खाना बनाने लगा. इसी बीच नहा आया। 2 बजे के करीब खाना खा चुका था। अभी भी चुप ही था। मोबाइल से गाने निरंतर बिना रुके बज रहे थे। हा, दिमाग शांत नहीं था, सारे दृश्य इसमें घूम रहे थे। क्यों रुक गया यहां पर, घर चले जाना चाहिए था मुझे, अभी अकेले है ,सब साथ में होते तो कितना अच्छा होता, सब कितने स्वार्थी है, मुझे छोड़ कर चले गए। फिर यह खयाल आता कि उनकी जगह मैं होता तो फिर क्या करता, शायद यहीं. इन्हीं सोच के बीच मैं खाने की जगह से बिस्तर पर आ चुका हूं 4 बज चुका है। अभी भी मैं चुप हूं। कितना चुप रहूंगा मैं ? लोग शिकायत करते है कि मैं बहुत बोलता हूं तो अच्छा नहीं लगता

उम्मीद और प्यार

रोज रात को सोते वक्त दुनिया से लगाई हुई अपनी तमाम उम्मीदें तोकर सोता हूं । सुबह उठता हूं तो फ़िर यह दुनिया अपनी उम्मीद के आगोश में डूबा लेती है। जहां जाने का जी नहीं करता, जिनसे बात करने का दिल नहीं करता, जो लोग हर बात में दिल को दुख जाते है, उन्हीं लोगों के बीच , उन्हीं की शर्त पर जीना पड़ता हैं। हमेशा से इस दुनिया में लोग अपनी जरूरतों को लेकर आगे बढ़े है। लेकिन कुछ लोगों में यह फर्क होता है कि वे अपने साथ दूसरे की जरूरतों का भी ध्यान रखते है. ध्यान रखने से मतलब ख्याल रखने का होता है। जर्मनी की प्रसिद्ध शायर रहे सेंट विटकाविन्न ने अपने किताब "द इमेजिनेशन और लव" में लिखा है कि इस दुनिया में "जरूरतें" नहीं होती तो प्यार नहीं पैदा होता। वे इस बात से इंकार कर देते है की प्यार कोई रूह का मसला है इस बयान का समर्थन करते हुए यह तर्क देते है कि व्यक्ति को चाहत होती है. वो चाहत कई रूपों, वस्तु आदि की हो सकती है। कोई रूप कि चाहत रखता है, तो कोई काम भावना की। उन्होंने आगे बढ़ कर यहां तक कहा है कि लोग अपनी भौतिक जरूरतों के लिए भी प्यार में फंस जाते है। उन्होंने प्

वक़्त के बहाने अनुभव की बातें

वक़्त के बहाने अनुभव की बातें एक वक़्त रहा जब हमें इस बात पर यकीन था कि इश्क आदि हमारे जैसे लड़कों के लिए नहीं बना है। हम दिन भर दोस्तों के बीच मौज में झूमते रहते थे. दिन का आधा वक़्त इशकबाजों का मज़ा लेने में निकाल देते थे। फ्रेंड सर्किल में जो लड़के मोहब्बत की बातें करते उन्हें बहिष्कृत मान लिया जाता, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार प्राचीन भारत में अछूत समाज से बहिष्कृत रहा करते थे। जिंदगी बहुत मौज में बीत रही थी... फ़िर वो वक़्त भी बीत गया। उम्र ने उस पड़ाव पर लाकर खड़ा कर दिया जहां मैंने खुद के आस पास बहुत से लोगों को देखा। जो ललक भरी नज़रों से मेरी तरफ देखते थे। उन्होंने मुझसे आशाएं पाल रखी थीं। मेरा परिवार, मेरे दोस्त, मेरा समाज मुझसे कुछ चाहने लगा था। बड़ा अजीब वक़्त रहा है। जिस करियर को हम अवसर के रूप में देखते आए थे वो अब आवश्यकता बन चुका था। इसी आवश्यकता कि तलाश ने शहर शहर भटकना शुरू कर दिया। सारे दोस्त पीछे छूट गए , साथ में समय भी छूट गया। जो केवल अपना होता था। कभी वक़्त को ख़ुद के मुताबिक़ बदलने वाले हम वक़्त के मुताबिक़ खुद को बदलने लगे। ऐसा नहीं था कि

व्यर्थ (कविता ) by Rashki nama

व्यर्थ ( कविता ) व्यर्थ कब तक खोया रहूं तेरी बातों की जुल्फों में की कभी पूछोगी दो हाल मैं बेसब्री से इंतजार में हूं जब सुबेह होगी तो ! जब सुलह होगी तो ? व्यर्थ कब तक ढलती रहेंगी रात अंधेरे तले की कभी पूछेगी सुबह की लालिमा क्या कहोगे कुहारा छटा तो ! जब अरुणिमा खिलेगी तो ? व्यर्थ कब तक बोलूंगा अधूरे सवालों के जवाब में कभी वक़्त पुकारेगा हमें बुरे वक़्त के दायरे में क्या बोलेंगे अगर कोई पूछे तो ! क्या बोलोगे अगर उसने ठुकराया तो ? व्यर्थ कब तक सोचूंगा डूबकर तिरी तस्वीर में की ख़ुद की तस्वीर में तस्वीर तेरी दिख गई एक टक निहारता रहा तो ! क्या होगा हाल - ए - दिल मकबूजा हुआ तो ?                         📝-  राहुल पांडेय रश्की ( 26/11/2019

आज बेटी दिवस है

                                            🎤📝  - राहुल पाण्डेय रश्की आज बाईस सितम्बर है.सुबह उठा तो कैलेंडर बता रहा था कि विश्व "अन्तर्राष्ट्रीय बेटी दिवस " के रूप में यादगार दिन मना रहा है. अब बेटी शब्द सुनते ही मन अजीब स्थिति में पहुंच गया. इंस्टाग्राम खोला तो बड़ी बड़ी हस्तियों जैसे प्रियंका गांधी, स्मृति ईरानी, शिखर धवन, निर्मला सीतारमण आदि ने बेटी दिवस को सेलिब्रेट किया है.अपनी अपनी बेटियों के फोटो को बकायद पोस्ट किया है. कुछ ने बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ नारे की अपील कि है.दूसरी तरफ कुछ ने वर्तमान सरकार में बेटियों पर बढ़ते अत्याचार के कारण अपना गुस्सा दिखाया. मैं भी इन्हीं द्वंद में जूझता रहा तभी मुन्नव्वर राणा का मशहूर शेर याद आता है.     ये चिड़िया भी मेरी बेटी से कितनी मिलती जुलती है     कहीं भी शाख़-ए - गुल देखे तो झूला डाल देती है आज हिन्दुस्तान कि बात करें तो बेटियों के किस्से मशहूर हो चले है. दो साल पहले प्रसिद्ध विश्वविद्यालय बीएचयू में राष्ट्रपति मुखर्जी ने व्यंगात्मक लहजे में छात्रों को संबोधित करते हुए कहा कि अगर हमारी बेटियां इसी तरह स

प्रेयसी को अंतिम खत

प्रिय प्रेयसी                कमरे में अकेले मेन लाइट बन्द कर टेबल लैंप जला कर जब मै पढ़ने बैठता हूं तब तुमसे कह देता हूं, कॉल मत करना ! और तुम मान जाती हो. बस दो घंटे बीतते है . इलाहाबाद के पढ़ाकुओं का बाइबिल "लूसेंट समान्य ज्ञान" में मेरियाना गर्त को प्रशांत महासागर की शांति में ढूंढा ही था , तबतक बगल में रखें मेरे नए वाले रेडमी नोट सेवन प्रो की डिस्पले चमक उठती है। नोटिफिकशन बार के टॉप फ्लोर पर तुम्हारे नंबर के सामने मैसेज की गिनती बढ़ती जा रही है. पता नहीं क्यों , अब बढ़ते मैसेज दिल की धड़कनों को बढ़ाते है. कभी तुम्हारे एक मैसेज का दस रिप्लाई देने वाला बन्दा दस-बीस या सौ मैसेज की एक रिप्लाई देने से डर जाता है. शीशे की खिड़कियों के उसपार ऊचे आसमान से गिरती बारिश की बूंदे मुझे प्यास का अहसास कराती है. पीले बॉटल की तलहटी में दो बूंद पानी बचा है,उसे ही पी लेता हूं। अजीब यह है कि प्यास बुझ जाती है. मन कर रहा है कमरे से निकल कर पानी भर लाऊ, फिर डर लगने लगता हैं . कही तुमसे सामना न हो जाए. मै फिर देखता हूं बड़ी तेजी से मैसेज के नम्बर बढ़ रहे है. बढ़ते मैसेज को देखक

फोटोग्राफी की संक्षिप्त जानकारी ( Photography :- New Market )

आज के लोग जमाने को तस्वीरों में कैद करने लगे है. इसके साथ जुड़ी होती है कई जिन्दगी, यादगार किस्से , मनपसंद लम्हें और खूबसरत पल! तस्वीरों का इतिहास उतना भी पुराना है जितना मनुष्यों का . आज आदमी मशीन द्वारा तस्वीर खींचता है. जब मशीन नहीं थी तब वह स्मृतियों में तस्वीरें सुरक्षित रखता था. जैसे जैसे याददाश्त ख़तम होती जाती, तमाम तस्वीरें भी मिटती जाती. आसान शब्दों में कहें तो किस्से कहानियों के एलबम में भाव विभोर अभिव्यक्ति द्वारा नायाब तस्वीरों का छायांकन लोग किया करते थे. आधुनिक युग और इसके आविष्कार ने प्रत्येक वस्तु के भाव , स्थिति और महत्व में आश्चर्यजनक परिवर्तन ला दिया. सदियों से चली आ रही परिभाषाएं बदल गई. चित्रांकन का स्थान छायांकन ने ले लिया. छायांकन के आविष्कार के पीछे के मजुबत कारण रहे होंगे इस पर एक छात्र मज़बूत राय रख सकता है, मै व्यक्तिगत तौर इतना कह सकता हूं कि एक भावात्मक लगाव ने इसके आविष्कार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. शायद उस वक़्त किसी को यह महसूस नहीं हुआ होगा की एक जमाने में फोटोग्राफी एक इंड्रस्टी के रूप में खुद को स्थापित कर लेगी. 1839 में सर्वप्रथम फ्रां

मित्रता दिवस विशेष

-----  मित्रता दिवस पर विशेष ----- दुनिया में असमानता शाश्वत रूप में विद्यमान रही है . मनुष्य एक मात्र ऐसा प्राणी है जिसने चराचर जगत में चिंतन को एक विशिष्ट गुण के रूप में प्रदर्शित किया है. इसी चिंतन की देन हैं कि प्रकृति द्वारा स्थापित हर मान्यताओं को सबने अपने अनुसार व्याख्यित करने का प्रयास किया है. तमाम असमानताओं से ऊपर उठकर, बिना किसी समाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक, लैंगिक, , शारीरिक , और अन्य प्रकार के भेदभाव के आपसी सामंजस्य के साथ मैत्री पूर्वक प्रेम तथा मेलजोल बनाए रखने का आधिकारिक प्रयास किया गया. 1958 में परागुए में Ramón Artemio Bracho ने एक संगठन तैयार किया गया.World Friendship Crusad  नामक यह संगठन शांति के साथ मैत्री आधारित जीवन को बढ़ावा देने के लिए तैयार किया गया . तब से हर साल पराग्वे में 30 जुलाई को अन्तर्राष्ट्रीय मित्रता दिवस मनाया जाता है. जब बदलते समय में संचार क्रांति ने वैश्विक जगत में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई तो इस मैत्री भावना के प्रसार का सन्देश अन्य देशों को भाने लगा.  27 अप्रैल 2011 को संयुक्त राष्ट्र संघ की आम सभा ने 30 जुलाई को आधिकारिक तौर प

आख़िर कब होगा न्याय ?

आख़िर कब होगा न्याय ? भारत का अतीत समृद्ध प्रभाशाली एवम विविधता से युक्त रहा है। इस धरती ने न्याय और सम्मान की सुखद परिभाषा गढ़ी है। अहिंसा एवम समानता के सिद्धांत को इस मिट्टी ने जन्म दिया है। इन्हीं गौरव गाथा को याद कर भारत के समस्त नागरिक ख़ुद पर गौरव महसूस करते हैं। सम्पूर्ण विश्व में कोई ऐसा देश नहीं जो हमारे अतीत जैसा समृद्ध रहा हो, यही कारण है कि इस भूमि ने सदा से ही विदेश के लोगों को अपनी और आकर्षित किया है। कभी सोने की चिड़िया कहा जाने वाला यह देश आज एक विकट एवम गम्भीर समस्या से जूझने पर मजबूर हो गया है। भारत में नारी सम्मान की संस्कृति एवम अवधारणा सबसे प्रचीन है। जंहा पश्चिमी संस्कृति ने महिला को केवल भोग की वस्तु समझा वही भारत ने नारी को देवी का दर्जा देकर समाज को एक अलग रास्ता दिखाया। परन्तु आज वर्तमान समय में हम अपने रास्ते से भटक गए हैं आज भारत मे महिलाओं पर बढ़ती हिंसा ने हमें यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि हम किस रास्ते की और बढ़ चले हैं कुछ दिनों से अलीगढ़ में मासूम ट्विंकल की निर्मम हत्या का मामला सुर्खियों में है। ऐसा नही है कि यह पहली बार हुआ है। बीते महीनों में ऐसी घटनाए

गांधी से मुलाकात

        आज मैं बारी में गया था तिकोढे के लिए.... आम के पेड़ की पूताली पर चढ़ा देखा कि वँहा लोकतंत्र उल्टा लटका है गांधी जी के साथ और बगल में जिन्ना भी गांधी जी बैचेन है किसी को ढूंढने में शायद गोड़से को उसे वह अपना मित्र बनाना चाहते है कुछ दिन साथ रखना चाहते है साबरमती के आश्रम में लेकिन तभी भीड़ ने अखलाख को मार दिया उन्हें नोआखाली की याद आने लगी है गांधी जी फिलहाल साबरमती नही जाना चाहते  वो सुबोध को मारने वालों के पास जाना चाहते हैं उनसे कहना चाहते हैं कि वो सुबोध को मारने से पहले गांधी को मारें उन्हें अब भी यकीन हैं -अपने सत्याग्रह पर तभी धड़ा धड़ गोलियां चली और लाशें बिछ गई - लंकेश, दाभोलकर, कुलबर्गी की वो दुखी हो गए उनकी आंखों में आँसू आ गए जिन्ना को लगा कि उनकी सिगरेट के धुएं से गांधी परेशान हैं उन्होंने सिगरेट बुझा दिया है आँसू अब भी हैं जिन्ना के सामने गाँधी कभी रोए नहीं जिन्ना सकते में आ गए हैं परेशान होकर- क्योंकि कभी रोए नहीं है गांधी आज वो रो रहे है इस लिए नहीं, की  उनके अपने उन्हें गाली दे रहे है इसलिए कि अब स

आपका नम्बर

कभी कभी जब मैं कुछ नहीं करता हूं तो अपने आप को याद करने लगता हुँ। इस भागदौड़ में जीवन के एक भी पहलू पर ठीक से नजर फिराने का मौका मिलना भी दूभर हैं। खुद पर नजर दौड़ाते हुआ हुए अनेक ब्रेकर मिलते है जब हमें रुकना पड़ता हैं। तुम्हारी यादें यू तो पूरी जिंदगी में साथ साथ जुड़ी हैं, लेकिन यह जो ब्रेकर हैं किसी विशेष खास घटना को खुद से थामे बैठे हैं। ये अतीत के साथ घुल मिल चुके हैं। जब भी मैं ज्यादा दुखी होता हूँ तो वह मुझें ख़ुशी का अहसास कराते हैं, जब मैं ख़ुश होता हुँ तब यह उस खूबसूरत गुलाब के ठीक नीचे नुकीले काट की तरह मुझें कष्ट पहुचने को तैयार रहते हैं। कुछ दिनों तक मैं क्रमागत रूप से सुख दुख का अनुभव करता रहा, पर इन दिनों जब महीनें छह महीनों पर खुद को देखता हु तो केवल दुख होता हैं। अपार पीड़ा होती हैं उन फैसलों पर जिसे मैंने साझा हितों को ध्यान में रखते हुए दीर्द्ध कालीन लाभ की दृष्टि से लिया हैं.... मुझे पीड़ा देते हैं मैं इस पीड़ा से डरने लगा तो खुद को देखना छोड़ दिया। भगवान कृष्ण की फिलॉसफी को ध्यान में रखते हुए अब केवल आज के लिए जी रहा हूँ।       अब कभी खुद से मायूस होता हूं तो खुद के